Monday, January 31, 2011

कागार

आकार ले रहा था
बवंडर
सागर के उस पार
जिसका पानी
सदियों से उपेक्षित
मानव अश्रुओं से
कड़ुवा गया है
अभी
असंतोष दूर है
अपनी
दहलीजों से
मगर
नहीं टलेगा
महज
खोखली
सरकारी दलीलों से|

हमारी अपनी
जमीन पर
अब
रेत उड़ने लगी है
नफ़रत की नागफनी पर
बारूदी फूल
पनपने
झरने लगे है
लोग
अपने में ही
सहमने
सिमटने लगे है
ये दूरियाँ
और
क्षेत्रीय दुराग्रह
राष्ट्र रूपी चदरिया को
चिंदी कर रहे है
सब
बंगाली
मराठी
उर्दू
असमिया
तमिल
तेलुगु
हिंदी
कर रहे है|

अब कबीर भी
निरपेक्ष नहीं रह गया
वंचितों में
ऐसे
संभ्रांत पल रहे है|

युवा
सपनों की
पूजीवाद प्रायोजित
मरीचिका में
स्वयं मृग हो
अपने ही को
छल रहे है|

युग बदलने वाले
रोज
दल बना रहे है
बदल रहे है|

कोहरे का ताल्लुक
मौसम से
नहीं रह गया
वैसा
सभी मौसम
कोहरे ही में
पल रहे है |

आप
कब
उधार लेकर
पता
बदल रहे है ?

Sunday, January 30, 2011

हे राम ! ये हरी पत्ती , लाल पत्ती ! !!

तुम राम कह कर गए
कुछ काम भी
कहा तो था ...
मगर
तुम्हारी तस्वीरों से
तिजोरिया भरते भरते
तुम्हारे आदर्शों
जीवन मूल्यों को भी
बेच दिया
हमने
महंगे
बहुउपयोगी
डॉलर के बदले |

तुम्हारे चित्र छपी
हरी पत्ती से
अब
इस देश में
ख़रीदे जाते है
जिस्म
ईमान
और
वोट |

और
हर जुबां
जो
सच बोलती थी
बोल सकती थी
उसके होटों पर भी
चिपका दी है
हमने
तुम्हारे चित्र वाली
कुछ हरी पत्ती |
कुछ लाल पत्ती |

Tuesday, January 25, 2011

गणतंत्र दिवस पर खिचड़ी की प्रसादी

मैंने बचपन से
सुभाष और भगत को
घुट्टी में पिया है
मुझे पता है
तिलक ने
गांधी ने
इस देश के लिए
क्या किया है

आज
उस भोगे हुवे
अतीत पर
रचा गया
यथार्थ भारी है
मुझे नहीं पता
सचिन के
अलंकरण के
क्या निहितार्थ है
मेरे लिए तो
ये भी
एक और
राजनीतिक कब्ज
और
प्रचार की
आम सी
बीमारी है
वो
जो दिल्ली में
पच्छिम की तरफ
मुह कर के सोते है
उन्हें
सुबह
अमिताभ
और
सचिन से ही
जुलाब होते है

जिनकी तिजोरियों में
बंद है
जय जवान
जय किसान
का नारा
जिन्होंने
सच
और
कर्तव्यों से
कर लिया किनारा
वो
सरहदों पर
संगीनों से
गुलाब बोते है
जिनकी सुर्ख
पंखुरियों पर
विधवाओं के आंसू है
वो
शहीदों के कफ़न
रोते है

रोज
जिनके कारण
लाखों
जवां स्वप्न
फैलती चारागाह में
ज़िंदा ही
दफ़न होते है
ऐसे
सरफिरों की
नाकारा
और
खोखले
मानस की
इबारत है दिल्ली
क्या रंज
गर उडाता है
प्रबुद्ध विश्व
गाहे बगाहे
भारत की खिल्ली |
किसी ना किसी
हवाई अड्डे पर
आज नहीं कल
नंगे हो जाएंगे
ये भी शेखचिल्ली |

खैर
मैं तो
उबल रहे अंतस पर
अपनी
प्रज्ञा की आंच से
जागरण की
खिचड़ी पकाता हू
देखता हू
आपसे प्रतिक्रया में
कितनी
मुंग
कितने
चावल
पाता हू |

सभी सह्रदय को
गणतंत्र दिवस पर
बधाई हो बधाई
क्या हुवा
जो आज
वो
दावत उड़ा रहे है
कल
तुम्हारी भी
बारी तो आएगी
तब बात करेंगे
सच
और
साहस की
मुझे तो आदत है
बक बक की
यू ही
नाहक की |

आपका विनीत
तरुण कुमार ठाकुर
www.whoistarun.blogspot.com

कैसा गणतंत्र ये !

ना नर रहे
ना नरेश ही
बस
गणतंत्र है
जिसके
कई
गूढ़ मन्त्र है
जो साध लिए
तो होओगे
उस तरफ
जहां
सरकार है
व्यापार है
वरना
इधर
जहां
सब लाचार है |

विनम्रता के
मुखौटे लगाए
परिचारिका सी
गणाध्यक्ष है
लम्पट नेता
और
छटे हुवे
मंत्री है
दागी अफसर
और
दयालु अपराधी भी है
सचमुच
दौर पूरा
जोर सारा
उदारीकरण पर है |

न्यायालय
तूती से बोलते है
माध्यम
हकलाते से
लगते है

जनता
बढ़ जाती है
हर जन गणना में
और
बंट भी जाती है

राष्ट्र भाषा
मौन है |
राष्ट्रीय पशु
नेता है
जो चर जाते है
सकल घरेलु आय
और
उत्पाद भी
बचे खुचे
हौसलों के साथ

इस राष्ट्र को
आत्मप्रवंचना की
शाश्वत बीमारी है
मूक होकर
देखना
सहना
संविधान प्रदत्त
लाचारी है

वैचारिक गुलामी
और
नैतिक पतन का
अंधा युग
अब चरम पर है
लगता है
पाबंदी
बस शरम पर है !

Monday, January 24, 2011

संविधान की पुण्यतिथि पर

शोक सभा होगी
लालकिले पर
तिरंगा फहराएंगे
नए नवाब
अति विशिष्ट अतिथियों
और
हद दर्जे कि सुरक्षा में
होगी परेड
जिसमे
नहीं दिखाया जाएगा
गरीब किसान,
महँगा राशन ,
कसमसाती गृहणी ,
लुटती व्यवस्था ,
ना ही
दर्शन होंगे
क्षेत्रीय
या
भाषाई एकता के
बल्कि
भाषण से झांकी तक
अनेकता ही दिखेगी
जिसमे
जोड़ दिया जाएगा
कोई नया अध्याय

सिमटती
सीमा रेखा पर
शर्मसार नहीं होना
गर्व करना
उधार
और
आयात के आयुध पर
जो
बढ़ते करों
और
शिक्षा
स्वास्थ्य
की कटौती से
ख़रीदे
कबाड़े
जायेंगे

स्वप्न दिखाती
परिकथा सी होगी
भाषण की परिपाटी
एक बार फिर
शर्मसार होगी
अमर ज्योति पर
शहीदों की माटी |

Saturday, January 22, 2011

मौलिक अधिकार

आम नागरिक होना
हमारा मौलिक अधिकार है
और नेता चुनना
हमारा मौलिक कर्तव्य
सो किसी भी
अन्य अधिकार जैसे
हम इसे भी
एन्जॉय करते है
और
कर्तव्य
अनेको
अन्यान्य कर्तव्य जैसे
निभा दिया जाता है

जब चाहे
हमें आदेश दे
हम
आँख कान मूंद कर
छटे हुवे
काईया नेताओं
और
छुटभैयों
या
रसूखदारों में
किसी को भी
पहुचा देते है
वहां
जहां से
वो जैसे चाहे
खेलते रहे
सता के खेल

हम
तभी चौकते है
जब बात
अधिकारों तक आती है
आखिर
आम होने का
ये ख़ास अधिकार
हमारी बपौती है
सो
महंगाई बढ़ा कर
भ्रष्टों को आश्रय दे
सरकार
हमारे उसी अधिकार की
रक्षा ही तो करती है

तो फिर
हम क्यों लड़े
उनसे
जिन्हें
हमने ही चुना है
अपने
कर्तव्यों का
पालन कर के

फिर
शाहजहाँ की तरह
ये भी तो
हाथ काट लेते है
हमारे
सत्ता के
ताज निर्माण के बाद !

संविधान ???
नहीं देता हमें
इन्हें
सत्ता च्युत करने का
मौलिक अधिकार ???

Friday, January 14, 2011

बसंत गुमनाम है !

उसे सब बसंत कहते है ,
अपनी पसंद भरते है ,
उसकी बाते भी करते है ,
इंतज़ार करते है ,
इसरार भी
मगर
कोई उससे नहीं पूछता
कि
क्यों बसंत उदास रहता है
भटकता रहता है
संग लिए
पागल पवन
और
सूखी
नाकाम
प्रेम पातियाँ
जो
कभी नहीं पहुचती
प्रेमी ह्रदय तक
उन्हें
कवि बटोर लेता है
वाचता है
आंसुओं में लिखी
आरजुओं की गज़ल
और
रचता है
विरह
और
वेदना में डूबे
प्रणय गीत
हे बसंत !
वो भी
तुम्हे कोई नाम
अब तक तो नहीं दे पाया |