Tuesday, April 27, 2010

आम का मौसम है आम चूसिये

आम का मौसम है आम चूसिये ,
दो चार लेकर जेब ठुसिये
क्या पता ,
फिर
आम आम ना रहे
क्योंकि
एक चुनाव काफी है
आम के ख़ास होने को
ये डिटर्जेंट काफी है
सारे दाग धोने को
पर
ससुरे चुनाव भी
आजकल टलने लगे है
खोटे सिक्के भी
दस दस साल चलने लगे है !

एक आम सी दरख्वास्त है
हर ख़ास-ओ-आम से
जो गए हो
दफ्तर-ऐ-सरकार
कभी किसी काम से
मिले जरुर होंगे
आवाम से
जिसे
सलीका सिखलाते है
वो
ताकि
आम बना रहे आम
तभी तो
आम हर मौसम में
पकने लगे है
कुछ डालियों से पककर
टपकने लगे है
तुम
टपके हुवो की
जमात के दिखते हो
आम तो खा सकते नहीं
अलबत्ता
गुठलियाँ जरुर गिनते हो


गुठलियों से याद आया
आजकल
गुठलियों के भी
दाम मिलते है
इसलिए
बिना गुठलियों के भी
आम मिलते है
जो
बोतल में बंद
बड़े इंतजाम से आते है
कुछ नादान
आज भी
आम चूस के खाते है
गुठलियों से
पेड़ उगाते है
जिन्हें
सरकारी पशु
चर जाते है
आम आजकल
पनप कहाँ पाते है
जो थोड़े आम
बाजार तक आते है
ऊची कीमत पे
बिक जाते है
हमारे तुम्हारे लिए तो
वो केवल
विज्ञापन में नजर आते है
जहा
हर बार
कुछ नए जुमले
दोहराए जाते है
हम फिर
हसीं चेहरों
और
शीतल पेय से
भरमाये जाते है

तो
ऐ मेरे आम इंसान
अब तो पको
टपको
उगो
जड़े फैलाओं
जर्जर व्यवस्था की
नीव तक
ताकि
आम आम बना रहे
क्योंकि
आम तभी तक ख़ास है
जब तक आम है
आम से गुठली
गुठली से पेड़ ही
आम का सही अंजाम है |

Wednesday, April 21, 2010

अपने जन्मदिन पर खुद को ...

अपने जन्मदिन पर खुद को ...
आज उदास नहीं होउंगा
नाही निराश होने दूंगा
स्वयं को
थोड़ा मुश्किल है
जब
सब और से घेरा हो
अंधेरों ने
अगर ये रात है
तो मैं सो नहीं सकता
दिन है
तो रो नहीं सकता
थक नहीं सकता
बैठ नहीं सकता
रुक नहीं सकता
ना ही झुकूंगा कभी
अन्याय
और
अन्याय के परोक्ष
पक्षधरों के सामने
मेरे कंधे झुके जा रहे है
मगर
ये थकान है
निराशा नहीं
एक दिन इसे भी
जीत लूंगा
मेरा वादा है
खुद से !

Tuesday, April 20, 2010

गुलाम

फिर बनी
उनकी सरकार
सब
नौकर
हो गए
सता
पर
काबिज
फिर
संतरी और
जोकर
हो गए !
वंशवाद
और
सामंती
शासन की
स्मृती
मिटती नहीं
गुलाम
मानस से
परिवर्तन
से
जिनका
जी
घबराता है
वो
निश्चित ही
सिंह
की
संतान नहीं !

आक्रोश

निष्कर्ष पर
पहुँचने की जल्दी,
जड़ है ,
कलियुगी
अव्यवस्थाओं की
त्वरित
प्रतिक्रियाएँ ,
अनियंत्रित,
अनाधिकृत,
अपरिपक्व ,
अपरिष्कृत ,
आक्रोश
रोग बन चुका है |
ये महानगर
ऐसे
रोगियों को
बेहतर इलाज
का
आश्वाशन देते है |
यहाँ
आप
अपनी
जिंदगी बेचकर
दवा खरीद सकते है ,
दुवा भी ,
दवाएं
महँगी है बहुत ,
कारगर कितनी है |
कोई नहीं बताता
यहाँ |

इन्तेजाम

ढूँढना मुझे ,
जब खो जाऊ मैं
और
मेरी स्म्रतियों
के स्मारक बनाना
पर
अभी तो कोई बात नहीं
मैं जिंदा भी हूँ
और किसी काम
का भी नहीं
क्योंकि
मेरे नाम पर
कोई
अन्याय
कर ना सकोगे
मैं जो टोक दूंगा
सो
इन्तेजार करो
क्या कहा ...
इंतज़ार नहीं कर सकते !
तो ...
कोई
इन्तेजाम कर लो !

एक छोटी सी कविता

एक छोटी सी कविता ,
मेरी गोद में
आ बैठी ,
और बड़े प्यार से ,
मेरे कानों में ,
कुछ बोल गयी |
उसका मतलब ,
तो ना समझ पाया ,
अब तक ,
पर ,
उसका वो मेरी तरफ
आना
और
मेरी गोद में बैठना ,
साधिकार ,
निश्चय ही
वो एक लम्हा
बन गया
मेरे लिए ,
छंद भी ,
गीत भी ,
रस भी ,
सच है
कि जब कविता होती है
तो सब होता है |
और
जरुरी नहीं
कि
जब सब हो ,
और
कविता भी हो !

फिर कोई नयी बात

लो फिर एक "डेडलाइन",
एक और फिर कतार में ,
हर खबर खड़ी है ,
जैसे ,
किसी इन्तेजार में |
कि कई और भी बातें ,
कई और भी चेहरे,
सुने हुवे , देखे हुवे ,
बुने हुवे ,
हो सकते थे ,
इस किताब का अगला पन्ना |
पर
जीवन को किसने जाना है ?
किसने बुनते देखा है ,
चाँद वाली बुढिया को,
भाग्य के ताने बाने |
हमने भी कितनी ठोंकरे
मारी होगी ,
राह के रोड़ो को ,
और ये धुल ,
इसमे कही हम भी शामिल होंगे ,
एक आध कतरा,
कही उतरा भी होगा किसी कि साँसों में ,
कि ना जाने कितने ओठों पर ,
मेरी अनगिनत बातों का
उधार बाकी है |
ये सब और बहुत कुछ
और भी अनर्गल
सोच कर
जब
थक जाता हु
फिर कोई नयी बात
कोई नया ख्वाब
बुनता हु
देखो
मगर तुम
मेरी अगली
कविता का
इन्तेज़ार मत करना ||

Monday, April 5, 2010

इसलिए

आधी शताब्दी
बाद भी
मच्छर ,
मलेरिया ,
और
अशिक्षा
से
मुक्ति ना दिला पाया
प्रशासन
आतंकवाद से
सुरक्षा का
दावा करता है


इसलिए
हर घर में
कछुवा
जलता हैं
जिसका
अब
ज्यादा
जोर
नहीं चलता है


देश में
राजनीति की
दो-दो
धुरियाँ हैं
मगर
उनमे
मतभेद,
मनभेद ,
दुरी की
अनगिनत
सोची समझी
मजबूरियां है |


इसलिए
देश
एकमत होकर
मतदान
करता है
अपना पेट
काटकर
इनका
घर भरता है |


लगान
अब
नहीं
चुकाना पड़ता
पहले ही
काट लिया जाता है
जड़ों से


इसलिए
छोटे किसान की
फसल
और
मध्यमवर्गीय की
बचत
पनप
नहीं पाती

महंगाई
चढ़ता सूरज हैं
सर छुपाने से
क्या होगा ?
शाम तलक
खुदा जाने
अंजाम
क्या होगा ?


इसलिए
आशाओं को
इच्छाओं को
ढूंढ़ ढूंढ़ मारों
ये
अभिजात्य ,
सामंत
और
भ्रष्टाचारियों
की
दासियाँ हैं
तुम कभी
इन्हें
अपने घर की
शोभा
बना ना सकोगे |


अरे ओ !
मूढ़ ,
पढ़े लिखे श्रमिक
ज़रा
देश की
अर्थी को
कान्धा तो लगा
अभी
श्मशान दूर हैं
क्या पता
मुर्दे में
फिर
जान आ जाये


इसलिए
ऐ आम इंसान
अपनी भीड़ को
नियंत्रित कर
थोड़ा
हासियें पर होले
अभी
इस
राजपथ पर
एक
लाल बत्तियों
का
काफिला गुजरेगा
जिसे
कईं
खाकी जिस्म
सलामी देंगे
जिनकी
आत्माएं
उन्होंने
नौकरियों के एवज में
गिरवी रख ली है ...


नौजवानों ,
नौनिहालों ,
तुम
किसी बात का
शोक ना करना
रंज ना रखना
तुम्हारें तमाशों में
कोई
कमी
रखी नहीं जाएगी


इसलियें
शहीदों ,
देशभक्तों ,
और
जन सेवकों ,
विशारदों
की
भीड़ को
चीरता
कोई
क्रिकेटिया
भारत रत्न से
नवाजा जाएगा
अभी रुको
जलसा
ख़त्म नहीं हुवा
अभी
इसी मोड़ से
बस
थोड़ी देर में
देश का
जनाजा जाएगा |