Saturday, February 13, 2010

एक चुप और ...

एक चुप और ...
शोषण
पर
साहित्य
देशहित
में
रात्रिभोज
और
गांधीवाद
समाजवाद
की
शोक सभाओ में
मंदिरा ...
लम्पट
युग
के
स्वच्छंद
व्यभिचार
को
न्यायसंगत
ठहराते
कुतर्क
और
इन सब
पर
सम्पूर्ण
गाम्भीर्य
से
आच्छादित
पत्रकारिता
का
पीत स्तम्भ ...
लोकतंत्र
को
अभिजात्य
का
खिलौना
बनाकर
उनके
नौनिहालों की
चिरौरी करता है |
हम
पढ़ते है
क्योंकि
पढ़ सकते है
और लोग
सुनते है
क्योंकि
इतना तो
वो कर ही
सकते है
और
कुछ
लोग
सोचते भी है
और
बहुत थोड़े
प्रितिक्रिया में
हु / हां
करते
कम से कम
सर हिलाते हैं
और
जो
करोडो में
एक आध
अभिमन्यु
उलझता है
इस
चक्रव्यूह से
उसकी
तो
खबर भी
बिक नहीं पाती !
सच है
एक चुप
ही
बचा सकता है
हमें
इस
वक़्त के
दावानल से !

क्षण

सोचा था
आज
जरुर
लिखूंगा
करूंगा
कुछ !!!
सार्थक
पर
तय
नहीं कर पाया हूँ
अब तक
कि
कैसे
निरर्थक
निर्भिप्राय
ही
नष्ट
कर सकते है
हम
क्षण को
क्या
ये
वाकई
संभव है
यदि हाँ
तो
मान लो
कि
तुम ही
सृष्टा हो
नियंता हो
स्वयं के
समय के
सभी आयामों
और
अनुमानों के
और
यदि
नहीं !!!
तो
कब
कुछ भी
निरर्थक
निराभिप्राय
गुजरता है
किसी भी
क्षण ?

मत भूल जाना

यू
संभावनाओं में
कल्पना से
सृजित
समस्याओं
के
समाधान
अब
चलन में हैं
बस
किसी तरह
इसे
उस
गरीब
को समझा सके
तो
सरकार फिर
अपनी
बनेगी
वो
मुरख
इतनी
आसानी से
बहलता
भी नहीं
इसके लियें ही
जतन
कियें है
हमने
हर गलीं
हर नुक्कड़ पर
शराबखानें
सस्तें
सुलभ
तम्बाकुं के
गुटाखें
और
बड़ी
मुश्किलों से
अनपढ़
बना कर
रखी जनता
के लियें
बारीक
अक्षरों में
लिखें
वैधानिक चेतावनियों
वालें
बीडी और सिगरेट
के
बाद
हमारा
अभिनव
प्रयास
है
कि
गलीं गलीं
प्रबंधन की
डिग्रीया
प्रसाद कि तरह
बांटने वाले
महाविद्यालय
नाम कि
दुकाने
खोली जाएँ
ताकि
नई पीढी
गलती से भी
गरीब
और
सर्वहारा
के
उत्थान
जैसा
विवेकहीन
कदम
उठा ना सके
अरे !!
ये
नींव के पत्थर है
दबे रहने दो
तभी तक
टिकी है
हमारी
गगन चूमती
अट्टालिकाएं |
आओं
अधिक से अधिक
महिलाओं
और
युवाओं
को
इनका नेता बनाएं
पर
मत भूल जाना
कि
वो
महिला तुम्हारें
या
नेताजी के
घर कि
ही हो
और
देश
का विकास
तो तभी
संभव है
जब
युवाँ भी
पार्टी अध्यक्ष
का
बेटा / बहु / बेटी
ही
हो !

यादो में सही |

कोई नहीं छूटा
सब वही है
पर
यादों में
चलो
ऐसे ही सही
समय
और
नियति
के
दुरूह चक्र
में
नित्य बदलता
जीवन
इसमे
वो रस कहाँ
जो
अतीत की
जुगाली में है
वहाँ
बूढी नानी
अब भी
वैसे ही
खट्टे मीठे
स्वाद लेकर
कभी
नाश्ते पर
कभी
दोपहर के खाने पर
इंतज़ार कराती है
और
आँगन का
बड़ा नीम का पेड़
अपनी
घनी छाव
और
ढेर सारी
हरी लाल पिली
निम्बोरिओं के
साथ
खडा है
वह
खंडहर
आज भी आबाद है
बचपन की
छुपा छुपी से
और
तुम दोस्त
कहीं छुपें हो
तुम्हें
ढूंढ़ ही लूंगा
एक दिन
फिर
तुम्हारी बारी होगी
और
मैं छुपुंगा
तब तक
युही
मिलते रहना
सपनों में सही
यादो में सही |

लय/ छंद में


अम्बर में धरा में
जीवन में
धरा क्या है ?
सोचा, कहा, सुना ,देखा
सही ,
किया क्या है ?

वह भूल से
भूलकर भी
भूलता नहीं
फिर भी
याद करता है ,
पर
याद नहीं
भुला क्या है ?

रसिक है बहुत ,
धनिक भी है
बलवान भी बहुत
जीता, जिया , खाया , पीया ,
प्यारे
गढा क्या है ?

गिरते को उठा ,
खुद संभल ,
बन उजाला
अंधेरों में
लगी ठोकर
गिरा कोई
देखता तू अब भी
खड़ा क्या है ?

मुश्किलों से बड़ी मुसीबत ,
हर मुसीबत पे बड़ा आदमी
अहम् है स्वार्थ है
उनपे खुदा ,
नहीं पता
उससे बड़ा क्या है ?

कृष्ण !


किसके लिए लिखू ,
क्या लिखू क्यों भला ,
इतना सोचकर ,
तय किया ,
कृष्ण के लिए लिखू ,
क्यों ?
कृष्ण ही क्यों ?
क्योकि
वह कृष्ण है |
उतना ही काफी है
मेरे लिए
कृष्ण को
सन्दर्भ करने को
बहाने नहीं खोजने होते
वह यही होता है
हमारे आसपास
हमेशा
खेलता रहता है
ओठों पर
मधुर मोहिनी मुस्कान
और
बांसुरी के साथ
जब वो
नहीं दिखाई देता
उसके स्वर
सुनाई देते है
तब वो
और भी
निकट होता है .
कैसे बताये कोई ,
क्या है कृष्ण ?
मैं बस इतना
कह सकता हू
क्या नहीं है ...
कृष्ण !

स्वयं से


तुम संकल्प हो ,
श्रष्टा हो स्वयं ,
स्वयं ही
खोजते हो
स्वयं को
स्वयं में ,
क्या हो प्रभो !
जगन्नाथ हो
जगदीश्वर हो
दाता तुम्ही हो
स्वयं से
माँगते हो
स्वयं को
देते हो
स्वयं को
स्वयं ही
क्या हो प्रभो !
नहीं जानना मुझको ,
नहीं आती समझ
ये लीलाये तुम्हारी
पर
मै
मेरा विस्मय
और
विवेचना भी
सब
तुम ही तो
हो प्रभो !
स्वयं प्रश्न हो
उत्तर स्वयं
स्वयं से
पूछते हो
क्या हो प्रभो !

अमूल्य हो गया हु !

नित डूबकर
उस नाम रस में
अब
आनंद आता है
अधिक
नहीं जाना था
ये सुख पहले
और
यु ही
नित्य
शिकायतों की टोकरी
भर भर
लगाता रहा फेरी
कोई
मोल नहीं करता
आसुओं का
टूटी आस और
उखड़ती साँसों का
तुम अनूठे धनि हो
पहले ही
चुन लेते हो
उसे जो
सर्वथा निरर्थक है
मूल्यहीन है
जगत के लिए
नहीं कोई
तुमसा सौदागर
तुम्हारे स्पर्श से
जगत शेठ
धनि हो गया हु
अमूल्य था पहले
अब
अमूल्य हो गया हु !

प्रेम क्या है ?

प्रेम क्या है ?
क्या लव , प्रेम है ?
क्या लव ही प्रेम है ?
या ,
लव भी प्रेम है ?
फिर
प्रीत , प्यार, समर्पण
त्याग , अनुराग , और
बहुत कुछ
जो
हम करते है
उन सब से
जो
बदले में
लौटाते है
एक अहसास
जिसमे
उष्मा होती है
पहल होती है
परिणाम की परवाह
नहीं होती
ना होता है
अहम् का भाव ही
वो क्या है ?
जहा
सत्य , प्रेम और करूणा
साथ होते है
एक नजर आते है
जहा
हम जुड़ते है
औरो से
स्वयं से
फिर ना टूटे ऐसे
वही
ध्येय है
मतवाले मन का
वही
घर है
मेरे प्रीतम का

- प्रात: स्मरणीय पु. संत मोररी बापू के सादर चरणों में सादर समर्पित !

आज कुछ ना कुछ लिखूंगा जरुर ,

विषय कोई भी ,
भाव कोई हो चाहे ,
लय मिले ना मिले ,
कहा योग बनता है ,
इस आपाधापी में ,
के
कर सकूँ मन की ,
कर सकूँ
कुछ
सार्थक सा |
क्या पता ,
कल के लिए
ये शब्द ही
बन जाएँ पूंजी ,
और
इन्ही का पुल बनाकर ,
शायद
पांट सकूँ,
सदियों की
उस दुरी को
जो
मेरे और तुम्हारे
बीच है
चाहे भाषा, रंग , जन्म
या ऐसे ही किसी
मनगढ़ंत अन्धानुकृत निर्मूल
बेमतलब भारी से
मगर
मात्र नाम के आधार |
यकीं करों !
मेरा नहीं यार
अपना ही
बस एक बार
सब और से
आँखें मूंदकर
समेट सहेज कर स्व को
देखो
उस आस्था की जमीन को
जिसमें
विश्वाश का अंकुर
फूटना चाहता है
बस थोड़ी करुणा
और प्रेम से सिंचों
कभी कभी
तर्क और व्यवहार से परे जाकर
सहज
इंसान
महज
इंसान
बनकर
कर डालो
कुछ
अकर्म ही !