Tuesday, June 20, 2023

कही अनकही कविता हूँ मैं

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समर शेष बहुत जीवन का
अभी कहा जीता हूँ मैं ,
बाहर से बैचैन बहुत 
भीतर तक रीता हूँ मैं !

मौन मंथन रत एकाकी ,
विकल हला पीता हूँ मैं !
एक स्वांस में मरा अभी ,
एक स्वांस जीता हूँ मैं !

संग्राम बीच ही रची गयी ,
विस्मृत, विगत, रत गीता हूँ मैं !
मर्यादा की बलिवेदी पर, चिर 
अर्पित, मानस धर्मा सीता हूँ मैं !

लोभ बहुत है, मोह बहुत 
करने कहने को अरमान बहुत !
क्या कहूँ ? समय बीता मुझ पर ,
या विराट समय पर बीता हूँ मैं ?

सहज बनावट, पर नहीं सरल ,
अगढ़, निपट, ढिठा हूँ मैं  !
पकड़ नहीं पाया खुद को ,
स्व से चिपटा चीठा हूँ मैं !

क्या करू स्वयं को अनुदित ,
कटु अमिय, करील सा मीठा हूँ मैं !
बाहर से बैचैन बहुत ,
भीतर तक रीता हूँ मैं !




11 comments:

  1. ह्रदय से बुनी हुई सुंदर कविता .

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    1. बहुत आभार आदरणीय क्षितिज जी !

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  2. ह्रदय से बुनी हुई सुंदर कविता .

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    1. बहुत आभार आदरणीय क्षितिज जी !

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